Friday, March 11, 2011

मेरे मन की बांसुरी


मेरे मन की बांसुरी
कान्हा आन बजाये
मीठा लागे है बहुत
नाम स्वयं का गाये 

र मन, भज उल्लास से
अंतरहित का नाम
वो माता, वो पिता भी
उसको नित्य प्रणाम

कहना है किससे, कहो
कान्हा का सन्देश
उद्धव  बन कर मन खड़ा
श्याम गोपिका वेश

अद्भुत उसके नयन हैं
अद्भुत उसके बैन
धन्य हुई मैं बावरी
मिले श्याम से नैन


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जून १९९७ को लिखी
                    ११ मार्च २०११ को लोकार्पित                 

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