बैठ सखा कान्हा संग
खेल रचाए कितने सारे
बार बार मन में जाग्रत हैं
वो क्षण प्यारे प्यारे
कभी गुदगुदी
कभी गल बही
कभी धौल धप्पी संग चहके
वृन्दावन के पत्ते पुलकित
गान कर रहे हैं रह रह के
फिर कान्हा ने अधर बांसुरी
ऐसी तान सुनाई
सकल सृष्टि में
हम सब को
बस कान्हा दिया दिखाई
वही पवन है, वही गगन है
वही धरा, जल और अगन
श्याम सखा के संग
हो गए सकल गोपजन, मस्त-मगन
प्रीत श्याम कि अमृत अनुपम
उसका सुमिरन, भाव मधुरतम
जय जय जय कान्हा को गाऊँ
परमानंद जगाऊं
उसके लीला रस में खोकर
सारा जग पा जाऊं
अशोक व्यास
(१६ मई ०५ को लिखी गयी पंक्तियाँ
२ जन १० को लोकार्पित)
खेल रचाए कितने सारे
बार बार मन में जाग्रत हैं
वो क्षण प्यारे प्यारे
कभी गुदगुदी
कभी गल बही
कभी धौल धप्पी संग चहके
वृन्दावन के पत्ते पुलकित
गान कर रहे हैं रह रह के
फिर कान्हा ने अधर बांसुरी
ऐसी तान सुनाई
सकल सृष्टि में
हम सब को
बस कान्हा दिया दिखाई
वही पवन है, वही गगन है
वही धरा, जल और अगन
श्याम सखा के संग
हो गए सकल गोपजन, मस्त-मगन
प्रीत श्याम कि अमृत अनुपम
उसका सुमिरन, भाव मधुरतम
जय जय जय कान्हा को गाऊँ
परमानंद जगाऊं
उसके लीला रस में खोकर
सारा जग पा जाऊं
अशोक व्यास
(१६ मई ०५ को लिखी गयी पंक्तियाँ
२ जन १० को लोकार्पित)
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