Wednesday, January 13, 2010

नित्यमुक्त की संगत



मन आनंद बहार सदाव्रत
कान्हा मुख मन सदा रहो रत


उज्जवल, अद्भुत, करुण, दिव्य वह
सांस प्यास बस उसकी रंगत


मैं मन बंधन पडा रहा क्यूं
पाकर नित्यमुक्त की संगत


कर उसका सुमिरन रे मनवा
जिससे पग पग हो पावन पथ




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ जनवरी १० को लोकार्पित
२४ दिसंबर ०५ को लिखी पंक्तियाँ

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