बिन कान्हा कुछ भी नहीं
कान्हा से सब बात
प्रेम मगन चलती रहूँ
श्याम पिया के साथ
गोकुल में जो धेनु चराए
उसकी छवि से ठंडक आये
पनघट जाना सफल लगे है
जब उसका दरसन मिल जाए
माखन छींके रख कर सोचूँ
हाय री कान्हा, आकर खाए
क्या हो, मुझे देख डर जाए
केशव की हर बात लुभाए
गोप सखा संग खेल रचाए
शाम ढले जब वन से आये
रेत उड़े गायों के खुर से
कण कण श्याममयी होजाए
याद है जब नंदलाल पधारे
यसुमती घर आये थे सारे
नन्हे कान्हा के नयनों से
घुल गये सारे पाप हमारे
मोहन मोहन करती जाऊं
कब कान्हा का दरसन पाऊँ
वो मंडली के संग निकलता
पथ के बीच खड़ी रह जाऊं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ मार्च १९९८ को लिखी
४ जनवरी २०११ को लोकार्पित
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