Sunday, January 23, 2011

वाह गिरिधारी!


मेरा मौन जब जब
तुम्हारी गली आता है
मेरा कुछ रहता नहीं
सब तुम्हारा हो जाता है
और
यह बार बार जाना है
कि ध्येय बस तुम्हें पाना है 

जब मैं अधीर हो
तुम तक पहुँचने
तुमसे ही नाराज़ हो
रोता हूँ, रूठता हूँ
और फिर
मुझे मनाने का जिम्मा मुझे ही सौंप
मुस्कुराते हो तुम
वाह गिरिधारी!

१४ मई १९९८ को लिखी
२३ जनवरी २०११ को लोकार्पित 

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